पत्रकारों के लिए बजट में कोई प्रावधान नहीं !

पत्रकारों के लिए बजट में कोई प्रावधान न होना उसकी उपेक्षा का पुख्ता प्रमाण है। सरकार की इस दोहरी नीति से पत्रकार ही नहीं, बल्कि उसके परिवार के साथ भी यह अन्याय माना जाएगा।

Ο जितेन्द्र बच्चन

सरकार कोई भी हो। केंद्र की हो या राज्य की, सभी अपने-अपने बजट को कल्याणकारी और विकासोन्मुख बताते हैं। करोड़ों की योजनाएं, गतिमान विकास, शिक्षा की हिस्सेदारी, सड़कों का जाल, स्वास्थ्य सेवाएं, महिला सशक्तिकरण, कौशल विकास, युवाओं को रोजगार, सरकारी कर्मचारियों को महंगाई भत्ता, किसानों को कर्ज में छूट, गरीबों को मुफ्त अनाज, अधिवक्ताओं को कल्याण निधि, पुलिस को प्रोत्साहन और विकास की ऊंची उड़ान! लेकिन पत्रकारों को क्या मिला? कुछ नहीं! आखिर ऐसा क्यों? कब तक पत्रकार उपेक्षित रहेंगे? क्यों पत्रकारों के प्रति सरकार अपनी जिम्मेदारी नहीं समझती? जिसके बल पर सरकार अपना सिक्का चलाती है, उसी का अनादर और अनदेखी क्यों की जाती है?

अजीब दास्तान है, सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने के लिए ये नेता जिस पत्रकार को सीढ़ी बनाते हैं, वही मंत्री की कुर्सी पर बैठते ही उसे हेय दृष्टि से देखने लगते हैं। चुनाव आते ही बड़े-बड़े विज्ञापन जारी करते हैं, लेकिन चुनाव खत्म होते ही मुंह मोड़ लेते हैं। हमारे देश में तमाम ऐसे उदाहरण है जब सरकारी उपेक्षा के चलते समाचार पत्र-पत्रिकाएं या न्यूज चैनल बंद हो चुके हैं और उससे जुड़े हजारों पत्रकार भुखमरी के कगार पर पहुंच गए। इसके बावजूद केंद्र की सरकार हो या राज्य की, बजट में पत्रकारों के लिए कुछ नहीं करती। जो सरकार अपनी योजनाओं को समाज के जन-जन तक पहुंचाने के लिए पत्रकारों को एक मजबूत आधार मानती है और कई बार उसका इस्तेमाल भी करती है, वही उसे बजट से वंचित रखती है। एक पत्रकार और उसके परिवार के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा तक का बजट में कोई प्रावधान नहीं होता।

सरकार यह तो जानती है कि अखबार हो या न्यूज पोर्टल अथवा न्यूज चैनल, बिना इनके सहयोग के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। लोकतंत्र तभी कायम रहेगा जब हमारा चौथा स्तंभ मजबूत होगा। जो बजट वह पेश कर रही है, उसका प्रचार-प्रसार भी यही करेंगे, तब भी सरकार यह भूल जाती है कि अखबार और न्यूज चैनलों में पत्रकार ही काम करते हैं। वही पत्रकार जो सर्दी, गर्मी और बरसात में कई बार बिना तनख्वाह के दिन-रात चलते रहते हैं। समाज का कोई वर्ग विकास से वंचित न रह जाए, उससे जुड़ी एक-एक खबर के लिए गांव, गली-मुहल्ले और नगर-शहर की खाक छानते हैं। अपराध को उजागर करने के लिए जान जोखिम में डालते हैं, फर्जी एफआईआर तक होती है फर्जी गवाह तक खड़े कर परेशान तो किया ही जाता है पुलिस सुनती नही। तकनीकि और कानूनी तौर पर खबर को पुख्ता करने के लिए अधिकारियों के चक्कर काटते हैं, जिसके लिए उन पत्रकारों (कुछ को छोड़कर) को कोई आर्थिक सहयोग नहीं मिलता; उन्हीं पत्रकारों को अलग-अलग वर्ग (दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक या फिर मान्यता प्राप्त और गैर मान्यता प्राप्त) में विभाजित कर उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता है।

यह अन्याय और अनीति है। पत्रकारों के लिए बजट में कोई प्रावधान न होने से अधिकतर पत्रकारों के बच्चे जहां उच्च शिक्षा से वंचित रह जाते हैं, वहीं आर्थिक तंगी के चलते बेहतर इलाज भी नहीं मिल पाता। सरकार की यह दोहरी नीति महज पत्रकारों के साथ ही नहीं, बल्कि उसके परिवार के साथ भी सरकारी भेद-भाव माना जाएगा। चंद पत्रकारों के साथ एक कमरे में बैठकर कोई नीति निर्धारण कल्याणकारी नहीं हो सकता। माना कि सरकार चलेगी, कुछ दिन तुम्हारी सत्ता भी कायम रहेगी, लेकिन इतिहास में यह भी दर्ज होगा कि तुमने सभी पत्रकारों के लिए कुछ नहीं किया। क्योंकि कोई पत्रकार छोटा-बड़ा नहीं होता, पत्रकार ‘पत्रकार’ होता है। समाज और सरकार दोनों उसकी नजर में बराबर होते हैं, तो फिर सरकार पत्रकारों के साथ भेदभाव क्यों करती है? पत्रकारों को समाज से अलग क्यों देखती है सरकारें? क्यों उसके लिए बजट में कोई प्रावधान नहीं किया जाता?

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